हम कब सुधरेंगे?
महाराष्ट्र में भारी बारिश से 150 के करीब मौत और हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में रविवार को हुआ भूस्खलन जितना त्रासद है, उतना ही खौफनाक। लेकिन इसे महज एक हादसे के रूप में नहीं देखा जा सकता। भारत ही नहीं दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन और मौसम की बढ़ती अनियमितता से जुड़े ऐसे हादसे लगातार हो रहे हैं, जिन्हें कभी सदियों में एकाध बार होने वाली परिघटना माना जाता था। उत्तर अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया हीट वेव और जंगलों की आग से त्रस्त हैं तो चीन और यूरोप में भीषण बारिश और बाढ़ ने तबाही मचा रखी है। ग्लेशियर पिघलने और समुद्र का जलस्तर बढऩे से डूबने का खतरा झेल रहे छोटे-छोटे द्वीपों के निवासी अलग पूरी दुनिया से अपील कर रहे हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग को कम करने का कोई उपाय जल्द से जल्द करें। इन सबका एक प्रभाव तो यह हुआ ही है कि कल तक जिन लोगों को पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से जुड़े सवाल दूर की कौड़ी लगते थे, उनमें से भी एक वर्ग को लगने लगा है कि इन सवालों पर बैठकों और बहसों में उलझे रहने के बजाय तत्काल ठोस कदम उठाने की जरूरत है। धीरे-धीरे ही सही, पर इसका असर सरकारों के फैसलों और उनकी योजनाओं पर भी दिख रहा है।
हाल ही में यूरोपियन यूनियन (ईयू) ने एक बड़ी योजना घोषित की है- फिट फॉर 55, जिसका उद्देश्य यह है कि साल 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर को 1990 के स्तर से 55 फीसदी नीचे ले आया जाए। योजना यह है कि ईयू से संबंध रखने वाली अर्थव्यवस्थाओं में बिजनेस करने के ढंग में ऐसा सकारात्मक बदलाव लाया जाए, जिससे उक्त लक्ष्य को साधने में आसानी हो। भारत को भी अभी से इन संभावित बदलावों के अनुकूल कदम उठाते हुए चलना चाहिए। हालांकि वैश्विक उत्सर्जन में भारत का हिस्सा अभी मात्र चार फीसदी है और वैकल्पिक ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देने जैसे कदमों के रूप में उसने इस दिशा में शुरुआत कर दी है। मगर जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले हादसों की बढ़ती संख्या बताती है कि हमारे प्रयासों में काफी तेजी लाने की जरूरत है। अब भी पहाड़ी इलाकों में अधिक से अधिक बांध बनाने और सड़कें चौड़ी करने पर हमारा जोर कम नहीं हो रहा। योजनाकारों का एक हिस्सा मानता है कि पर्यावरण के नाम पर विकास की बलि देने से बेरोजगारी बढ़ेगी और इसलिए हमें विकसित देशों के दबाव में नहीं आना चाहिए। मगर सवाल किसी के दबाव में आने का नहीं, यह समझने का है कि हमारे सामने चुनौती विकास और पर्यावरण में से किसी एक को चुनने की नहीं बल्कि विकास के ऐसे स्वरूप को स्वीकारने की है, जो पर्यावरण के साथ फल-फूल सके और इस अर्थ में हमारे लिए टिकाऊ साबित हो।