दूर तक सुनाई देगी ‘गुजरात प्रयोग की गूंज

गुजरात में विजय रूपाणी को मुख्यमंत्री पद से हटाना और उनकी जगह भूपेंद्र पटेल को बिठाते हुए मंत्रिमंडल में सारे नए चेहरों को लाना ऐसा प्रयोग है जिसकी चर्चा लंबे समय तक होगी। 2017 के प्रदेश विधानसभा चुनाव में मोदी और शाह को बहुमत के लिए नाकों चने चबाने पड़े थे। मोदी द्वारा किसी भी एक राज्य के विधानसभा चुनाव में उसकी जनसंख्या की तुलना में सबसे ज्यादा सभाएं करने, अमित शाह के लंबे समय तक डेरा जमाने तथा पूरी पार्टी की शक्ति झोंकने के बावजूद किसी तरह 99 स्थानों का बहुमत मिल सका। माना यही गया कि पटेल जाति की नाराजगी बीजेपी को महंगी पड़ी। ऐसे में विजय रूपाणी की जगह भूपेंद्र पटेल को लाने की पहली व्याख्या यही हो सकती है कि यह पटेलों की नाराजगी दूर करने का प्रयास है। मंत्रिमंडल में 7 पटेलों के अलावा 6 अति पिछड़ों, 5 आदिवासियों, 3 क्षत्रियों, 2 ब्राह्मणों और एक-एक दलित तथा जैन को शामिल किया जाना भी जातीय समीकरण साधने की कोशिश ही माना जाएगा।
फिर से जाति की शरण
ऐसे में यहां यह प्रश्न उठाना आवश्यक है कि नरेंद्र मोदी को क्यों भारी समर्थन मिलता रहा जबकि वह न पटेल जाति से हैं और न गुजरात में उनका बड़ा जातीय जनाधार है? आज भी गुजरात में उनकी लोकप्रियता किसी भी अन्य नेता से ज्यादा है तो इसका अर्थ यही है कि पटेलों का बड़ा तबका भी उन्हें अपना नेता मानता है। 2014 और 2019 का चुनावी विश्लेषण बताता है कि समाज के एक बड़े वर्ग ने जाति, संप्रदाय और क्षेत्र से ऊपर उठकर मोदी के पक्ष में मतदान किया। ऐसे में स्वयं मोदी चुनावी सफलता के लिए जातीय समीकरण को निर्णय के केंद्र में लाएंगे, इस पर सहसा विश्वास करना मुश्किल है। ऐसा हो तो इसे क्या कहा जाएगा? क्या इसे जाति और संप्रदाय के भेदभाव से ऊपर उठकर मतदान करने वालों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन कहेंगे? गुजरात के सीमित संदर्भ में बात करें तो भी पटेलों की नाराजगी आनंदीबेन पटेल के मुख्यमंत्री रहते ही सामने आ गई थी। अगर किसी पटेल का मुख्यमंत्री होना या मंत्रिमंडल में पटेल समुदाय के लोगों का पर्याप्त संख्या में रहना नाराजगी दूर करता तो आनंदीबेन पटेल की जगह विजय रूपाणी को मुख्यमंत्री बनाने की नौबत नहीं आती।
गुजरात में संपूर्ण मंत्रिमंडल के परिवर्तन से जो संदेश निकल रहे हैं वे वर्तमान और भविष्य दोनों लिहाज से नुकसानदेह कहे जा सकते हैं। स्वयं मोदी केंद्रीय मंत्रिमंडल के साथ-साथ राज्यों के मुख्यमंत्रियों के चयन में भी जाति और क्षेत्र से ज्यादा उनकी योग्यता, ईमानदारी और वैचारिक निष्ठा को अहमियत देते रहे हैं। हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर का कोई जातीय आधार नहीं रहा है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ संन्यासी हैं। यह भी विचार करने का विषय है कि कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन के बाद वहां मंत्रिमंडल के चयन में यह कसौटी नहीं अपनाई गई। उत्तराखंड में भी यह कसौटी नहीं थी।
गुजरात प्रयोग के दूसरे पहलू भी चिंता पैदा करते हैं। मंत्रिमंडल में पूर्व मंत्रियों को जगह नहीं देने का अर्थ तो यही है कि जिसने बेहतर काम कर अपनी योग्यता साबित की और जिसने अच्छा काम नहीं किया, वे दोनों बराबर माने गए। इससे आम धारणा यही बनेगी कि भैया, आप काम करो न करो मोदी जी की जब इच्छा होगी आपको हटाकर किसी और को बिठा देंगे।
वैसे यह बात पहले से साफ थी कि राष्ट्रीय तथा प्रादेशिक स्तरों पर सरकार और संगठन में व्यापक परिवर्तन होंगे क्योंकि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान तथा पश्चिम बंगाल पराजय के बाद बीजेपी अपेक्षानुरूप प्रखर भूमिका निभाने में विफल रही है। इनमें आगामी चुनावों का भी ध्यान रखा जाएगा। लेकिन जैसा परिवर्तन गुजरात में हुआ उसे तर्क की कसौटी पर सही साबित करना कठिन है। इस समय नरेंद्र मोदी के रूप में केंद्रीय नेतृत्व सशक्त और प्रभावशाली है तो इसके विरुद्ध बड़ा विद्रोह नहीं दिखेगा लेकिन आवश्यक नहीं कि हमेशा इतना ही सक्षम नेतृत्व रहे। इस तरह के निर्णय की परंपरा बनी तो यह भविष्य में पार्टी के विभाजित होने का कारण भी बन सकता है।

बीजेपी को ध्यान रखना चाहिए कि कांग्रेस इसी शैली में नेतृत्व तथा मंत्रिमंडल में परिवर्तन करती थी। हालांकि वहां भी पूरे मंत्रिमंडल को बदलने की घटना कभी नहीं हुई। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के समय तक इससे पार्टी को कोई बड़ा नुकसान होता नहीं दिखा लेकिन अनेक राज्यों में जिस ढंग से पार्टी खत्म होने के कगार पर है उसका एक बड़ा कारण यही है कि केंद्रीय नेतृत्व ने राज्यों में मनमाने परिवर्तन किए। बीजेपी और कांग्रेस में यह गुणात्मक अंतर जरूर है कि मोदी या शाह मंत्रियों के चयन में निजी निष्ठा के बजाय पार्टी के राजनीतिक भविष्य तथा वैचारिकता को प्राथमिकता देते हैं। इसके बावजूद यह भविष्य की दृष्टि से चिंताजनक है। संसदीय लोकतंत्र में यह तय होता है कि संसद या विधानसभाओं में बहुमत वाला ही नेता होगा लेकिन फिर भी उस नेतृत्व का चेहरा पहले ही जनता के समक्ष आ जाता है। दुनिया भर में पार्टियां प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या चांसलर पद के उम्मीदवार को सामने रखकर ही जनता के बीच जाती हैं। सदनों के अंदर केवल नेता के निर्वाचन की औपचारिकता पूरी होती है। यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि किसी नेता को ऊपर से थोप दिया गया।
सफलता की गारंटी नहीं
सबसे बड़ी बात यह कि इसे सफलता की गारंटी भी नहीं माना जा सकता। बीजेपी ने पिछले दिल्ली नगर निकाय के चुनाव में पूर्व में जीते किसी पार्षद को टिकट नहीं दिया। उससे परिणाम बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ हो ऐसा नहीं दिखा। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी इसका असर नहीं हुआ। गुजरात में अगर अगले चुनावों में बहुमत मिल जाता है तो भी दावे से यह नहीं कहा जा सकेगा कि जीत का कारण संपूर्ण मंत्रिमंडल के बदलाव वाला यह प्रयोग रहा।

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